Friday 30 August 2013

अथ केजरीवाल जी चर्चा

अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी 2014 के चुनावों के क्षितिज पर एक अद्भुत प्रश्न बनकर उभरे हैं। इस लेख में मैंने इसी को केजरीवाल फ़ैक्टर का नाम दिया है। याद रहे, यह केजरीवाल फ़ैक्टर एक प्रश्न बनकर उभरा है, न कि एक उत्तर बनकर।
स्वामी रामदेव द्वारा किये गये जनजागरण और अन्ना हज़ारे जी के जन-आन्दोलन के बाद जो भ्रष्टाचार विरोधी भाव लहराने लगे, तब भ्रष्टाचार-विरोधियों की एक राजनीतिक पार्टी का प्रश्न बार-बार सामने आने लगा। अन्ना हज़ारे ने अपनी समझ से, और किरण बेदी जी ने अपनी समझ से ऐसा न करना ही उचित समझा। लेकिन अरविन्द केजरीवाल जी ने एक पार्टी बनाने का सही समय जाना। और मेरे विचार से यहीं पर वे गच्चा खा गये। इसके लिए उन्होंने वह तरीका चुना जो दशकों से कांग्रेस का गर्हित तरीका रहा है। यानी तुष्टीकरण का। हद तो तब हो गयी जब उन्हीं की टीम के प्रशान्त भूषण जी ने कश्मीर को जनमतसंग्रह करवाकर तदनुसार अलग भी कर देने का सुझाव दे डाला। उसके बाद बाटला हाउस काण्ड पर अरविन्द जी का स्वयं का बयान मानो सारी पिक्चर को क्लीअर कर देने के लिए काफी था। इसे हम प्रकृति का वरदान ही कहेंगे कि कांग्रेस का जो चेहरा दशकों बाद भारतीय जनता को समझ में आ सका (और तब कांग्रेस हारनी शुरू हुई 1977 में), आम आदमी पार्टी का वही चेहरा तुरन्त ही सामने आ गया। मानो दशकों की परिघटना (phenomenon) का एक लघु मॉडल आम आदमी पार्टी ने छोटे समयान्तराल के रूप में सामने रख दिया। अरविन्द जी का बयान था कि बाटला हाउस का एनकाउन्टर (जिसमें भारतीय कर्मचारियों को शहीद भी होना पड़ा था), फर्जी था। और इसके कुछ ही दिनों बाद हाईकोर्ट का फैसला आया जिसमें कोर्ट ने स्पष्ट निर्णय दिया कि एन्काउन्टर असली था। इसी दिन आम आदमी पार्टी ने फेसबुक पर पोस्ट किया कि हम इस निर्णय का स्वागत करते हैं। लगभग सभी को इस समय अरविन्द जी का पिछला बयान याद था और यह पोस्ट किसी थोड़ी सी समझ रखने वाले से भी हजम नहीं हुई।................................. जो भी हो, यह स्पष्ट हो गया कि आम आदमी पार्टी कोई नयी राजनीति सामने नहीं लाने वाली है। हालाँकि आज भी आम आदमी पार्टी के कार्यकर्त्ता यह कहकर इन बातों का बचाव करते हैं कि केजरीवाल के जरिये हमें जनलोकपाल चाहिये, और उसके लिए सत्ता में आना जरूरी है, और सत्ता में आने के लिए राजनीति तो करनी ही पड़ती है। लेकिन ये बात भी लोगों के हाजमे से परे है। कारण साफ है। "राजनीति तो करनी ही पड़ती है" क्या एक absolute statement हो सकता है? क्या इसकी कोई सीमा नहीं होगी? आखिर कितनी राजनीति तक ठीक माना जायेगा? क्या देश की जनता के हत्यारे आतंकियों को बख्श देना यह राजनीति का भाग हो सकता है? देश की जनता कैसे माने ले कि इस देश में वोटर इतना गिर गया है कि आतंकियों का समर्थन जब तक कोई पार्टी न करे तब तक उसे सत्ता में ही नहीं लाता? आखिर भाजपा ने देश को बिना आतंकियों का समर्थन किये सत्ता में आने का उदाहरण पहले ही दे दिया है। इसका अर्थ यह नहीं कि भाजपा की सभी नीतियाँ सही हों या हम उनसे सहमत ही हों। लेकिन हम यह तो कतई नहीं चाहेंगे कि दस साल से लुटेरों से (यानी सरकार में बैठे) मात खाते खाते अब खुद की लापरवाही व गलत फैसले से मात खा जायें। अतः अभी तक की घटनाओं से यह साफ निष्कर्ष निकलता है कि यह उचित ही है कि आम आदमी पार्टी से दूर रहा जाये। इन पंक्तियों का लेखक स्वयं सशक्त लोकपाल बिल का समर्थक रहा है, परन्तु लोकपाल बिल के लिए आतंकवाद और तुष्टीकरण को बढ़ावा देना समझदारी नहीं है।

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