Friday 18 October 2013

हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा क्यों?

इसे हिन्दू प्रतीकपूजा कहते हैं। अधिकांश हिन्दू इसके समर्थक हैं। लेकिन ऐसा अन्धाधुन्ध नहीं है। प्रतीक का अर्थ ही है कि इसके पीछे कुछ और है, जिसका प्रतिनिधि इसे 'माना' गया है। लेकिन कुछ हिन्दू वर्ग (जैसे- आर्यसमाजी) इसके समर्थक नहीं भी हैं। परन्तु ये सभी एक दूसरे की सदाशयता को समझते हैं और दूसरों की पूजापद्धति को तहस-नहस नहीं करते (इसका उल्टा, गजनवी के समय से मुसलमान करते आ रहे हैं, बल्कि मैंने तो पढ़ा है इस्लाम की उत्पत्ति के समय ही मूर्तियाँ तोड़ी गयी थीं।) 
मुसलमानों के लिए आश्चर्य की बात ये नहीं होनी चाहिये कि हिन्दू मूर्तिपूजा कैसे और क्यों करते हैं, बल्कि ये होनी चाहिये कि मूर्तिपूजा करने वाले और न करने वाले दोनों ही हिन्दू कैसे हो जाते हैं। यही बात उन्हें जिन्दगी भर समझ में नहीं आती है और इसी पेटदर्द को वो ये कहकर हल्का करते हैं कि मूर्तिपूजा करना मूर्खता है।

इस्लाम वस्तुतः धर्म न होकर एक कट्टर system of etiquettes है। मतलब ये कि इस्लाम का कार्य है ये define करना कि कोई आये तो हाथ कैसे घुमाएँ, सिर कितनी बार घुमाएँ आदि आदि। उसके आगे का लक्ष्य क्या है मुझे इस्लाम में इसका कोई indication दिखाई नहीं देता। हैं तो हिन्दू धर्म में भी ये सब नियम मौजूद, लेकिन क्योंकि हिन्दू जानते थे कि ये सब प्रतीक मात्र हैं और वास्तविक लक्ष्य मानव-कल्याण ही है, इसलिए इनके लिए कत्लेआम करने की सलाह नहीं दी गयी। क्योंकि जैसे डॉक्टर एक दवा दे और मरीज इतना असन्तुलित हो गया हो कि खाने को तैयार न हो तो, कोई भी समझदार व्यक्ति इस कारण से मरीज की हत्या नहीं कर सकता।

लेकिन इस्लाम के लिए न तो कोई मर्ज है न दवा, उन्हें तो मानो किसी ने सुपारी दी हुई है कि ये पदार्थ फलाँ व्यक्ति को खिलाकर आओ। और वो न खाए तो उसपर जो अत्याचार बन पड़े तब तक करो जबतक वो खा न ले। जब मैं किसी मुसलमान को हिन्दुओं की मूर्तिपूजा की निन्दा में अपना टाइम खराब करते देखता हूँ तो हँसी आती है क्योंकि मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई ऐसा व्यक्ति जिसने जीवन में सिर्फ ship (जलयान) देखा हो, वो दूसरे देश की पनडुब्बी को पानी में गोता लगाता हुआ देखकर खुशी के मारे भागकर घर जाकर बताये कि पड़ोसियों का जहाज डूब गया है।

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